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Friday 23 December 2011

swadharam ki avdharana

मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है जिसमे पशुता के साथ देवत्व भी समाहित है | अतः अपनी भौतिक संतुष्टि
के वाबजूद, एक उत्कंठा उसमे मौजूद रहती है |जो उसे कुछ और पाने की ओर प्रेरित करती है | यही उत्प्रेरणा उसके मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास को पुष्ट करती जाती है | फलस्वरूप मानव हर दिशा मे, कुछ नवीन कर पाने हेतु प्रयासरत रहता है | इसी विवेकशील प्राणी ने प्रत्येक व्यक्ति मे "चैतन्य की अनुभूति "हेतु  जो दिशा विकसित की, उससे ही मै 'धरम' का अर्थ लेता हूँ |

           यहाँ " चैतन्य की अनुभूति" मे दो शब्द अवश्य हैं | परन्तु जहाँ अनुभूति और चेतना मे भी द्वैत नहीं रहता, वह 'धरम' है, इस प्रगाढ़ अथवा सघन चेतना को धारण करना, 'मेरा धरम है', 'स्वधर्म' है |

          धर्म आत्यंतिक, वैयक्तिक है इसीलिए 'स्वधर्म' ही हो सकता है | 'परधर्म' धर्म नहीं, वरन एक सामाजिक आचरण, एक व्यावहारिकता हो सकता है | जिस प्रकार बिजली, विभिन्न वल्बों,पंखों आदि मे कैद होने पर व्यावहारिक द्रष्टि से भिन्न-भिन्न हो जाती है | लेकिन स्वरूपत विधुत एक है, ऐसा भी नहीं कह सकते | हमें यहाँ विधुत के लिए वेदांत के 'अद्वैत' शब्द को प्रयुक्त करना उपयुक्त होगा | इसी प्रकार, जिस धर्म को मै, आत्यंतिक या वैयक्तिक कह रहा हूँ वह अनुभूति के स्तर पर, अवश्य वैयक्तिक हो रहा है, क्योंकि वह किसी की अनुभूति है | परन्तु जिस समय यह अनुभूति, अनुभूत होती है, उस समय, वह सार्वभौमिक हो जाती है | यही कारण है की धर्म की गंगोत्री मे डुबकी लगाकर निकलने वाला, फिर जाति, भाषा, देश- काल की सीमा से बाहर हो जाता है | और 'अहम् ब्रम्हास्मि', अनहलक, सोहमं का गुंजार, केवल भाषागत भिन्नता का बोध कराता है | लेकिन आचरण के स्तर से, हम सभी को मात्र देखकर ही जान सकते है कि प्रत्येक उसी सचिदानंद की बात कर रहा है जिसके बारे मे, हम मात्र "गूंगे द्वारा खाये गुड" की भांति व्याख्यान दे रहे है |

       लेकिन 'स्वधरम' को जितने शास्त्रीय ढंग से व्याख्यायित श्रीकृष्ण ने 'भग्बदगीता' मे किया है, उतना किसी और ने नहीं | हालाकि, मै मानता हूँ की 'स्वधरम' के आधार पर ही, वैदिक काल मे, वरण-व्यवस्था और आश्रम-व्यवस्था को उधृत किया गया था | पर मै यह भी मानता हूँ कि यह व्यवस्था 'वैयक्तिक अनुभूति का सामाजीकरण' का प्रयास, वस्तुत कालांतर मे उसका पतन हुआ |  श्रीकृष्ण महाभारत मे मोहग्रस्त अर्जुन को अंत तक यानी अठारह अध्यायों मे, 'स्वधरम' का बोध कराते है | और जैसे ही अर्जुन को 'स्वधरम' का बोध होता है, तो स्वत ही उसकी फलासक्ति, कर्ताभाव, मोहग्रस्तता आदि सभी उद्वेग शांत हो जाते है और वह निर्विकार भाव से युद्ध मे सलंग्न हो जाता है |

      अत 'स्वधरम' का बोध हो जाये, तो धार्मिक आचरण करना नहीं पड़ता, अपितु जीवन ही धर्ममय हो जाता है | लेकिन 'स्वधरम' का बोध हो कैसे ? क्योंकि हर किसी के बालसखा श्रीकृष्ण तो है नहीं | यही पर मै मानता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति को 'स्वधरम' का बोध कराने हेतु, प्रत्येक धर्म मे कुछ क्रियाओं का समावेश अवश्य है |  चाहें  वह इस्लाम का सूफी रहस्यवाद हो, चाहें वह ईसाई धर्म की बपस्तिमा का क्रियाकांड हो, या हिन्दुओं का योग | यह सभी क्रियाएं, मनुष्य के मनस को इस दशा मे ला देती है कि 'स्वधरम' का बोध स्वयं होने लगता है और मनुष्य अपने धर्म का निर्वाह कर, इस संसारूपी महाभारत मे विजयी होने के बावजूद, निर्विकार ही रहता है |UA-61452005-1


Tuesday 20 December 2011

ek vichar




  • मै  जानता हूँ कि गुत्थी कैसे सुलझेगी ? लेकिन मै सुलझा नहीं सकता, शायद यही संसार है | इससे अच्छी परिभाषा संसार की क्या होगी ? "संसार" लिखा है ये न तो तिरस्कार के लिए लिखा है और न व्यंग के लिए | वरन यह वास्तविकता-सी लगती है | क्योंकि मै सोचता हूँ अगर मै अकेला हूँ, तो कुछ भी करना और न करना मूल्यांकन का विषय ही नहीं है | क्योंकि जो भी हूँ, मै हूँ | लेकिन जहाँ मेरे अतिरिक्त, अन्य भी अस्तित्व रखता है |

वहाँ मै किसी मात्रा मे सही या गलत हो सकता हूँ परन्तु पूरी मात्रा मे सही या गलत नहीं हो सकता | इसलिए दो ही सम्भावनाये है पूरी तरह से सही या गलत होने के लिए | या तो मै सब हो जाऊ या मै ही मै रह जाऊ | अथार्त " अहम्  ब्रह्मास्मि " या "एक तू ही निरंकार" | जो भी पीड़ा है, उसे विश्लेष्ण करके, नाम कोई भी दे दूं लेकिन मूल यही है  कि न तो "मै ही मै बचा है" और "न तू ही तू है"|



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Monday 19 December 2011

shajhan ek mumtaz anek

           इश्क  करना वैसे तो शायद जन्मजात आदत ही है | और वक़्त आने पर यह हर युवा के अन्दर पैदा हो जाती है | लेकिन शायद अपने अन्दर यह जन्मजात आदत न होने के कारन कैसे - कैसे दवाब मैंने झेले है, इनको ही लिख रहा हूँ |
           मै जब भी किसी आशिक की इश्क  की दास्ताँ सुनता हूँ | और उनके ऊपर लडकियों द्वारा जान देने की बात  सुनता | तो मन मे मीठे - मीठे सपने अपने - आप ही आने लगते | लकड़ी द्वारा प्यार का इज़हार मुस्कराहट से होता है , यह अधिकतर आशिकों का मत था | इस सदवाक्य को सुनकर मेरा दिल बल्लियों उछलने लगता | क्योकि पता नहीं कितनी लड़कियां  रास्ता चलते,  अपने घर के दरवाजो से, अपनी छतो से,  गाड़ी मे सफ़र करते,  अपनी माताजी के बगल से,  अपनी अमूल्य मुस्कराहट निछावर करती रहती है | पर , जिस समय वो मुस्कराती,  उस समय मेरा वेबकूफ मन चिल्लाकर कहता है," कि बेटा,  बेबकूफ समझकर मुस्कराए जा रही है |" उस समय , इश्क की पहली सीढ़ी पर ही हम मात खा जाते |
           लेकिन बाद मे,  हम आशिकों की सांगत मे, आकर मन को समझा ही लेते कि " सुन्दरियाँ वास्तव मे, हमारे  इश्क मे गिरफ्तार है और हमें भी कुछ सद्प्रयास करने चाहिए |" यह बात मन मे आते ही, हम भी दृढ संकल्प कर लेते कि हम इश्क भी करेंगे तो इससे ही, और शादी भी | शादी क्यों ? क्योकि यह मेरा मत है कि कि जब हमारा किसी से इश्क होता है तो इसका तात्पर्य है कि हमारा उससे पुर्वजनम का सम्बन्ध है (क्योंकि मैं पुर्वजनम को मानता हूँ ) और किसी लड़की से इश्क का मतलब " दोनों लड़की और लड़के का तन, मन और धन से मिलन | और हमारे समाज मे तन, मन और धन से मिलन पति - पत्नी के बीच ही संभव है | इस तरह का दृढ संकल्प करके हम, उस लड़की के घर चक्कर   लगाना  शुरू कर देते | अगर लड़की मिल जाती है , तो हम और वो मुस्कराकर,  आँखों ही आँखों मे बातें कर लेते | लेकिन जब वो अपनी माताजी, पिताजी, अथवा भाईजी के साथ होती,  तो अपने मन ही मन मे दुहराने लगते,  " अरे , अगर किसी ने पूछा, " कि यहाँ क्यों चक्कर लगा रहा है , रे |" तो आँखे निकालकर और कड़क आवाज़ मे कह देंगे , " कि आपके बाप की सड़क तो नहीं है , हम अपने दोस्तों से मिलने जा रहे हैं |"  इतना सोचते ही हमारी सांस धौंकनी की तरह चलने लगती और उस गली का कोई भी आदमी हमारी तरफ देखने लगता | तो मन ही मन सोचने लगते, " कि, बेटा आज तो ये ताड़ गया,  आज तो जरूर मारेगा | " बस हमारे कदम अपने ही आप तेज पड़ने लगते |
            और इस तरह, हमारा इश्क पता नहीं, कितनी बार शुरू हुआ और कितनी बार दम तोड़ गया |  अगर किसी के पास, दिल के अन्दर तक देख लेने वाली दूरबीन हो, तो वो हमारे दिल के अन्दर हजारों ताजमहल देख सकता है | जिसकी हर कब्र मैं दफ़न होने वाला शाहजहाँ तो एक ही है, लेकिन मुमताज़  हर कब्र मे अलग |UA-61452005-1

abhi jee lene do

आज   नहीं, अपितु अभी कुछ लिखा जा सकता है, और वही कोशिश करने की कोशिश कर रहा हूँ | मेरा मानना है कि कभी भी, कही भी, किसी भी भाषा मे जो भी अच्छे से अच्छा पढ़ा  गया है | वह किसी ने लिखा जरूर है परन्तु उसकी संपदा नहीं है | जरूर उतरा है  कोई उसके माध्यम से | मेरा मानना है कि मै वही माध्यम बनने का प्रयास  इस ब्लॉग के द्वारा कर सकू | बस इतना ही | जिसने भी इसे  पढ़ा, उसके लिए धन्यवाद |
UA-61452005-1