मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है जिसमे पशुता के साथ देवत्व भी समाहित है | अतः अपनी भौतिक संतुष्टि
के वाबजूद, एक उत्कंठा उसमे मौजूद रहती है |जो उसे कुछ और पाने की ओर प्रेरित करती है | यही उत्प्रेरणा उसके मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास को पुष्ट करती जाती है | फलस्वरूप मानव हर दिशा मे, कुछ नवीन कर पाने हेतु प्रयासरत रहता है | इसी विवेकशील प्राणी ने प्रत्येक व्यक्ति मे "चैतन्य की अनुभूति "हेतु जो दिशा विकसित की, उससे ही मै 'धरम' का अर्थ लेता हूँ |
यहाँ " चैतन्य की अनुभूति" मे दो शब्द अवश्य हैं | परन्तु जहाँ अनुभूति और चेतना मे भी द्वैत नहीं रहता, वह 'धरम' है, इस प्रगाढ़ अथवा सघन चेतना को धारण करना, 'मेरा धरम है', 'स्वधर्म' है |
धर्म आत्यंतिक, वैयक्तिक है इसीलिए 'स्वधर्म' ही हो सकता है | 'परधर्म' धर्म नहीं, वरन एक सामाजिक आचरण, एक व्यावहारिकता हो सकता है | जिस प्रकार बिजली, विभिन्न वल्बों,पंखों आदि मे कैद होने पर व्यावहारिक द्रष्टि से भिन्न-भिन्न हो जाती है | लेकिन स्वरूपत विधुत एक है, ऐसा भी नहीं कह सकते | हमें यहाँ विधुत के लिए वेदांत के 'अद्वैत' शब्द को प्रयुक्त करना उपयुक्त होगा | इसी प्रकार, जिस धर्म को मै, आत्यंतिक या वैयक्तिक कह रहा हूँ वह अनुभूति के स्तर पर, अवश्य वैयक्तिक हो रहा है, क्योंकि वह किसी की अनुभूति है | परन्तु जिस समय यह अनुभूति, अनुभूत होती है, उस समय, वह सार्वभौमिक हो जाती है | यही कारण है की धर्म की गंगोत्री मे डुबकी लगाकर निकलने वाला, फिर जाति, भाषा, देश- काल की सीमा से बाहर हो जाता है | और 'अहम् ब्रम्हास्मि', अनहलक, सोहमं का गुंजार, केवल भाषागत भिन्नता का बोध कराता है | लेकिन आचरण के स्तर से, हम सभी को मात्र देखकर ही जान सकते है कि प्रत्येक उसी सचिदानंद की बात कर रहा है जिसके बारे मे, हम मात्र "गूंगे द्वारा खाये गुड" की भांति व्याख्यान दे रहे है |
लेकिन 'स्वधरम' को जितने शास्त्रीय ढंग से व्याख्यायित श्रीकृष्ण ने 'भग्बदगीता' मे किया है, उतना किसी और ने नहीं | हालाकि, मै मानता हूँ की 'स्वधरम' के आधार पर ही, वैदिक काल मे, वरण-व्यवस्था और आश्रम-व्यवस्था को उधृत किया गया था | पर मै यह भी मानता हूँ कि यह व्यवस्था 'वैयक्तिक अनुभूति का सामाजीकरण' का प्रयास, वस्तुत कालांतर मे उसका पतन हुआ | श्रीकृष्ण महाभारत मे मोहग्रस्त अर्जुन को अंत तक यानी अठारह अध्यायों मे, 'स्वधरम' का बोध कराते है | और जैसे ही अर्जुन को 'स्वधरम' का बोध होता है, तो स्वत ही उसकी फलासक्ति, कर्ताभाव, मोहग्रस्तता आदि सभी उद्वेग शांत हो जाते है और वह निर्विकार भाव से युद्ध मे सलंग्न हो जाता है |
अत 'स्वधरम' का बोध हो जाये, तो धार्मिक आचरण करना नहीं पड़ता, अपितु जीवन ही धर्ममय हो जाता है | लेकिन 'स्वधरम' का बोध हो कैसे ? क्योंकि हर किसी के बालसखा श्रीकृष्ण तो है नहीं | यही पर मै मानता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति को 'स्वधरम' का बोध कराने हेतु, प्रत्येक धर्म मे कुछ क्रियाओं का समावेश अवश्य है | चाहें वह इस्लाम का सूफी रहस्यवाद हो, चाहें वह ईसाई धर्म की बपस्तिमा का क्रियाकांड हो, या हिन्दुओं का योग | यह सभी क्रियाएं, मनुष्य के मनस को इस दशा मे ला देती है कि 'स्वधरम' का बोध स्वयं होने लगता है और मनुष्य अपने धर्म का निर्वाह कर, इस संसारूपी महाभारत मे विजयी होने के बावजूद, निर्विकार ही रहता है |UA-61452005-1